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३२८ : धर्मविन्दु क्रीडाकी बात होती हो तो वह सुननेमें आवे अतः साधुका मन स्खलित हो तथा विहल हो और ध्यान, स्वाध्याय न हो सके।
पूर्वक्रीडितास्मृतिरिति ॥१५।। (३१४ मूलार्थ-स्त्रीके साथ की हुई पहलेकी क्रीडाका स्मरण न करे ॥४५॥
विवेचन-दीक्षा लेनेके पहले स्त्रीके माथके कामभोग तथा क्रीडा वा विलास, खास तौरसे वे प्रसग जो आनंददायक थे, उनको याद न करे । इससे मन उसकी ओर प्रेरित होता है तथा कामोद्दीपन भी होता है । यह भुक्तभोगी साधुके लिये विशेषतया कहा है।
प्रणीताभोजनमिति ॥४६॥ (३१५) मुलाथे-अतिस्निग्ध भोजनका त्याग करे ॥४६॥
विवेचन-जो आहार बहुत स्निग्ध या ग्सप्रद हो जैसे घीके बिंदु टपके ऐसा रसीला आहार साधु न करे। इससे कामविकारकी उत्पत्ति होती है। साथ ही ऐसी सर्व वस्तुओंका भी त्याग करे जो कामवृद्धि करती हैं।
अतिमात्राभोग इति ॥४७॥ (३१६) मूलार्थ-अतिशय आहार नहीं करना ॥४७॥ . विवेचन अतिस्निग्ध न हो तब भी अधिक मात्रामें खाना नहीं चाहिये । शास्त्रोक्त प्रमाण ३२ कवलका है। ज्यादा भोजन करनेसे इद्रिय सतेज होती हैं जिससे कामविकारकी उत्पत्ति होकर