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यतिधर्म देशना विधि : ३०७
"सो तावसासमाओ, तेसि अप्पत्तियं मुणेऊणं । परमं अवोहिवी, तओ गओ इंतकालेऽवि ॥ १६४ ॥ "इय यत्रेणऽवि सम्मं, सर्क अप्पत्तियं सइजणस्स । नियमा परिहरियां, इयरम्मि सतत्तचिताउ चि ॥१६५॥" - धर्ममें तत्पर पुरुष दूसरोको अप्रीति करनेवाला कार्य न करे | अप्रीतिके कारणको दूर करनेसे संयम अधिक श्रेयकारी होता है । भगवानका उदाहरण विचारणीय है । जैसे- भगवान किसी तापसके आश्रम में उतरे पर यह जान कर कि उसे अप्रीति उत्पन्न होगी और बोधिवीजकी प्राप्ति न होगी अतः अकालमें भी (जत्र विहार न करपे - वर्षाकालमें) विहार कर गये । अतः संयममें तत्पर साधुजन भावशुद्ध रखनेके लिये लोगों को अप्रीति हो तो यथासाध्य उस स्थानका त्याग करे। यदि स्थान त्याग न कर सके तो अपने -दोष या अपराधका विचार करे ।
वह इस प्रकार विचार करे-
"ममेवायं दोषो यदपरभवे नाजितमहो,
शुभं यस्माल्लोको भवति मयि कुप्रीतिहृदयः । अपास्यैवं मे कथमपरया मत्सरभयं,
जनो याति स्वार्थे प्रतिविमुखतामेत्य सहसा ॥१६६॥" -- अरे ! यह मेरा दोष है, मैंने परभवमें पुण्योपार्जन नहीं किया अतः लोगो में मेरे प्रति अप्रीति होती है । यह मेरमें ही किसी दोषके होने के कारण है । यदि मैं अपापी होता, शुभ कर्मवाला होता तो लोग निश्चित ही अपना काम छोड़ कर मेरे प्रति विमुख न होते । मेरे पर मसर क्यों रखते ! अतः यह मेरा ही दोष है - ऐसा विचारे पर क्रोध न कर !