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३१० : धर्मबिन्दु
किसी भी कारण से प्रमादवश किसी मूलगुण आदिके आचारकी कोई विराधना हुई हो तो उसका स्वतः या किसीकी प्रेरणासे दोषको स्वीकार करके शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त अंगीकार करे 1 यदि प्रायश्चित्त या आलोचना न ली जावे तो दोष होने के समय से दोपका अनन्त गुना दारुण परिणाम आता है, जिसे भोगना पडता है । मूलको मान लेनेसे तथा प्रायश्चित्तसे पाप टल जाता है पर दोषको स्वीकार न करनेसे अनन्त गुना दोष लगता है । शास्त्रमें कहा है---
"उप्पण्णा माया अणुमग्गय निहंता । "अलोमण निणमरहणाहि न पुणो विधीयति ॥१६॥ "अणगारं पर कम्मं, नेवं गृहे न निण्डवे । सुई सया वियडभावे, असंसत्ते जिइंदिप ॥ १६९॥ "
- अपने प्रमादसे उत्पन्न : दोषसे मूलगुणकी जो विराधना हुई हो उसकी आलोयण, निंदा और गर्हणा से तथा फिरसे प्रमाद न करने से उस विराधनाका नाश करना अर्थात् दोषका प्रायश्वित करना और फिरसे मूल न हो उसका संकल्प करना । निर्मल बुद्धि - वाला, सुंदर भाववाला, आसक्तिरहित, और जितेन्द्रिय कदाचित् पाप करे पर तत्काल गुरुके पास उसका प्रायश्चित्त करे पर उसे छिपा नहीं |
तथा - पाण्यपरित्याग इति ॥२२॥ (२९१) सूलार्थ और कठोरताका त्याग करे ||२२|| विवेचन - पारुष्यस्य - तीन कोप तथा कषायके उदयसे उत्पन्न