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यति सामान्य देशना विधि . २९५
शास्त्रोल्लंघनसे, वालिङ्गयुक्तोऽपि - शुद्ध यति लिंगधारी होने पर भी- यति वेशधारी होने पर भी ।
जो पुरुष उपरोक्त विधि रहित यतिधर्म ग्रहण करे वह मोह तथा अज्ञानसे शास्त्रका उल्लंघन करता है तथा उसकी ऐसी प्रवृत्ति होनेसे वह यति वेषधारी होने पर भी उभवभ्रष्ट हैं । जो शास्त्रीके
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अर्थके विरुद्ध चले तथा उपरोक्त विधि बिना दीक्षा ले वह शुद्ध यतिके समान होने पर भी, यतिलिंगधारी होने पर भी न यति है, न गृहस्थ । गृहस्थाश्रमका त्याग हो जाता है पर भाव चारित्र से रहित होनेके कारण यति भी नहीं होता अत उभयम्रष्ट है। जिसकी भवभ्रमणा बाकी है तथा मोहगर्भित वैराग्यसे यतित्रत धारण करे तथा यतिके गुण उसमें न हो तब वह उभयभ्रष्ट है। गृहस्थावास बिगडता है तथा यतिधर्मके योग्य वह नहीं होता । अयोग्य शिष्यको संयम देनेसे अनिष्ट परिणाम आता है। तथा जैनशासनको अपकीर्ति होती है इसकी जिम्मेदारी गुरु पर आती है।
श्रीमुनि चन्द्रसूरिविरचित धर्मविन्दु वृत्तिमें यतिविधि नामक चतुर्थ अध्यायः समाप्त हुआ.
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