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यति सामान्य देशना विधि : २२३ इस दीक्षाविधिकी समाप्ति करते हुए ग्रन्थकार कहते हैएवं यः शुद्धयोगेन, परित्यज्य गृहाश्रमम् । संयमे रमते नित्यं, सं यतिः परिकीर्तितः ॥२२॥
मूलार्थ- इस प्रकार शुद्ध आचारसे गृहस्थाश्रम छोडकर जो नित्य संयममें विचरण करता है वह यति कहलाता है।॥२२॥
विवेचन-एवं-इस प्रकार, य:- जो भव्य प्राणी, शुद्धयोगेनसम्यक् व शुद्ध आचारसे, परित्यज्य- छोड कर, संयमे- हिंसादि विरमण महाव्रतके पालनरूप संयममें, रमते- आसक्तिवान या रागसहित, सा- ऐसा गुणवान परिकीर्तितः- कहलाना है।।
'यततेऽसौ यतिः । 'ज्ञानस्य फलं विरतिः'- वही यति है जो यत्न करता है। ज्ञानका फल विरति है। धर्मश्रवणसे ज्ञान प्राप्त करके जो विरति ग्रहण करता है तथा उसमें प्रवृत्ति करता है सो यति है। जो उक्त विधिसे संयम या चारित्र धारण करे और उसमें आनंद माने तथा उसीमें रागसहित विचरण करे, हिंसादि विरमण महावतोंका पालन करे वह यति कहलाता है। एतत् तु संभवत्यस्य,
सदुपायप्रवृत्तितः । अनुपायात् तु साध्यस्य,
'सिद्धि नेच्छन्ति पण्डिताः ॥२३॥ मृलार्थ- सच उपायोंसे प्रवृत्ति करनेसे ही यह यतित्य संभव है। साध्य कार्यकी सिद्धि पंडितजन उपाय विना नहीं इंच्छते या उपाय विना कार्यकी सिद्धि संभव नहीं ॥२३॥