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२९० : धयादन्दु तथा-शक्तितस्त्थागतपसी इति ॥३९॥ (२६५)
मूलार्थ-शिष्यकी शक्तिके अनुसार त्याग व 'तप करावे ॥३९॥
विवेचन-शक्तिती-शक्ति के अनुसार, त्याग-देव, गुरु, संघ आदिकी भक्ति व पूजा करने में यथाशक्ति द्रव्यका व्यय करे, तपअनशनादि तप करावे ।
दीक्षा लेनेवाले शिष्यसे उसकी शक्तिके अनुसार सन्मार्गमें व्यय करावे । देव, गुरु व संघकी भक्ति तथा जानकार्य व स्वामी भाइयोंका दुःख दूर करने आदि सन्मार्गामें दीक्षार्थीकी स्थिति व शक्ति के अनुसार धनका सद्व्यय कराना । परिग्रह त्यागकी परीक्षा भी उमसे होती है। आयंबिल, उपवाम आदि तपस्या भी कराना चाहिये । शक्तिके अनुसार शरीर व इद्रिय पर क्या संयम है उसका यथार्थ पता लगे। तथा-क्षेत्रादिशुद्धी वन्दनादिशुद्धया शीला
रोपणमिति ॥४०॥ (२६६) । , मूलार्थ-और क्षेत्र आदिकी शुद्धि करके वंदन आदिकी शुद्धिसे शीलका आरोपण करे ॥४॥
विवेचन-क्षेत्रस्य-भूमि व दिशाओंकी, शुद्धौ-शुद्धि कराना, बन्दनादिविशुद्ध्या-वन्दन आदिकी शुद्धिसै चैत्यवंदन, कायोत्सर्ग (काउसंग्ग ) तथा साधुवेशको देकर या पहनाकर सुदेर आचरिको सुंदरतासे तथा शुद्धतासे शीलका आरोपण करे अर्थात् सामायिकको 'परिणामरूप आचार तथा उसका अर्पण करना-अर्थात् 'कमि भते सामइयं' आदि दंडकके उच्चारणपूर्वक दीक्षांके योग्य पुरुषको दीक्षा देना।
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