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२८० : धर्मविन्दु
विवेचन-पुरुष पराक्रमसे साध्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्षके
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संब व्यवहारोंमें उनके बारेमें द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावका विचार' करके बुद्धिमान पुरुष ' जिसे योग्य माने वह आदरणीय है, उसमें किसी प्रकारकी हानि नहीं। उपपन्न- योग्य तथा योग्यतामें कोई मैद नहीं । सिद्धसेन नीतिकारका यह मत है ।
इस प्रकार दस अन्य तीर्थियों के मतोंको बताकर अब ग्रन्थकार अपना मत बताते हैं-
भवन्ति त्वल्पा अपि असाधारणगुणाः कल्याणोत्कर्ष साधका इति ॥२१॥ (२४७) ' मूलार्थ - असाधारण गुण अल्प हों तो भी कल्याण व उत्कर्षके साधक हैं ॥२१॥
विवेचन - अल्पा अपि-कम हों तो भी (ज्यादा भी हो सकते हैं ), गुणाः- आर्यदेशोत्पन्न आदि पूर्वोक गुण, असाधारण - जो सामान्य या प्रत्येक मनुष्यमे होना सभव नहीं है । कल्याणोत्कर्षसाधकाः- दीक्षा लेना आदि उच्च कल्याण के साधक हैं ।
शास्त्रकारका मत है कि - असाधारण व उच्च गुण थोडे भी हों तब भी वे उच्च कल्याणका साधन करनेमें समर्थ होते हैं । असाधारण गुण अवश्य ही अन्य गुणोंका आकर्षण करने में सफल होते हैं । अतः चौथे व आधे गुण कम होने पर मध्यम व जघन्य योग्य हैं ऐसा कहना जो पहले कहा है योग्य है ।
यहां वायु, वाल्मीकि, व्यास सम्राट्, नारद, वसु व क्षीरकदम्बकके जो मत दर्शाये हैं वे एक दूसरे के मतंका खण्डन करते हैं