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२८२ : धर्मविन्दु तात्पर्य यह है कि सद्धर्म कथा सुननेसे जिसका मन दीक्षा लेनेको तत्पर है ऐसे भव्य प्राणीसे पूछना, जैसे- " हे वत्स! तुम कौन हो? किस लिये दीक्षा ग्रहण करते हो ?" उसके उत्तरमें यदि वह यह उत्तर दे कि- "हे भगवन् ! मै कुलीन हूं, मैं आर्यदेशके उस स्थानमें उत्पन्न हूं, और सर्व अशुभ उत्पत्तिवाला भवस्वरूप संसारी व्याधिका क्षय करनेके हेतु ही मैं दीक्षा लेनेको तपर ह, यह संसार मुझे असार लगता है और बंधनमुक्त होनेके लिये ही दीक्षा लेनेको तत्पर हूं।" तब वह प्रश्नशुद्ध हुआ समझा जावे अतः उसका उत्तर सही है और इस कारणसे तो दीक्षाके योग्य ही है।
इस प्रकार उत्तर देने पर शिष्यको कहे; यह दीक्षाका मागे कायरके लिये नहीं पर शूरवीरके वास्ते है । यह प्रव्रज्या (दीक्षा)का पुरुष द्वारा मुश्किलसे अनुकरण करने लायक है । उनसे पालन नहीं हो सकती । दीक्षा शूरवीर पुरुषों द्वारा ही पाली जा सकती है अतः शूरवीरता रखे। और आरंभसे निवृत्त पुरुषको इस भवमे तथा परभवमें परम कल्याणका लाभ होता है। यदि आज्ञाकी विराधना की जाय तो ससारफलका दुःख देनेवाली है। जैसे कुष्ठ आदि रोगमें हैरान होने पर औपघि लेकर पथ्यका पालन करे तो ठीक, अन्यथा यदि औषधि लेकर अपथ्य करे तो विना औषधि मृत्यु पाता है, उससे अधिक शीघ्र औषधमें अपथ्य पालनेसे नाशको प्राम होता है। इसी प्रकार कर्मव्याधिका क्षय करनेके लिये संयमरूप भावक्रिया औषध है अतः असंयमरूप अपथ्यका पालन करे तो अधिक कर्म उपार्जित करता है । अत: बिना दीक्षा जितना कर्मबंध होता है, दीक्षा लेकर असंयम