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२७८ : धर्मविन्दु
मूलार्थ-कार्षापण धनमें अन्य धनके जुड जाने पर भी उसे कोटिध्वज कहना अयुक्त है ऐमा क्षीरकदम्बकका मत है।
विवेचन-अयुक्तं- अयोग्य, कापणधनस्य- बहुत हलके घनवाला व्यवहारी, तदन्यविढपनेऽपि- उस कार्षापण या हलके धनसे अन्य कार्यापण धन होने पर भी- उससे क्या? कोटिव्यवहारारोपणं- कोटिध्वजके नाम का या व्यवहारका आरोपण करना या वह स्वयं अपनेको क्रोडाधीश माने ।
जो व्यापारी हलकी जातिका व्यवहार करे, हलके धनसे अन्य ऐसा ही धन और कमावे तथा अपने आपको कोटिध्वज माने तो वह अयोग्य है। उसका व्यवहार कोटिध्वजके व्यवहारके समान नहीं हो सकता । कोटिध्वजका व्यवहार बहुत लंबे समयमें साघा' जा सकता है। उतने लंबे समय तक व्यापारीका जीवन संभव नहीं होता । उच्च गुण तो विशिष्ट योग्यतासे ही आ सकते हैं-यह क्षीरकदम्बकका अभिप्राय है। नारद और भीरकदम्बकके वचन मात्र, अंतर है अर्थमें नहीं उनमें मतभेद नहीं है। न दोषो योग्यतायामिति विश्व इति ॥१८॥
मूलार्थ-योग्यतामें दोप नहीं ऐसा विश्व आचार्यका मत है।
विवेचन-दोप- अयुक्तता, योग्यतायां-योग्यता- कार्षापण धनवाला भी उस प्रकारका भाग्योदय होने पर कोटिध्वज हो सकता है। विश्व- नामक आचार्य ।
कार्षापण धनवाला भी उस प्रकारका भाग्योदय होने पर प्रतिदिन सौगुने, हजार गुने आदि कार्षापण धनको इकट्ठा करके भी वह