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२७६ : धर्मविन्दु
वस्तुतः योग्यता से ही सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। योग्यताके अभावमें, उसके न होनेसे, केवल गुणसे कल्याण नहीं होता या प्रयोजन सिद्धि नहीं होती । कहनेका आशय यह है कि केवल गुणोंके होनेसे दीक्षाका अधिकारी जीव दीक्षाके लिये योग्यताकी प्राप्ति नहीं करता तब तक उसका आरंभ किया हुआ कार्य सिद्ध नहीं होता । मनुष्य में गुण हों पर दीक्षाकी योग्यता न हो तो उसका प्रारंभ किया हुआ कार्य सिद्ध नहीं होता । जो योग्य है वही अधिकारी है और 1 जो योग्य नहीं है वह किसी भी कार्यका अधिकारी नहीं है । अनधिकारीको सर्वत्र निषेध है अतः योग्यता ही सर्व कार्यों में कल्याणको देनेवाला गुण है ।
यत् किञ्चिदेतदिति नारद इति || १४ || ( २४० ) मूलार्थ सम्राटका मतं वास्तविक नहीं है ऐसा नारद कहते हैं. 1 ॥१४॥
विवेचन सम्राटको कहना भी योग्य नहीं है, नारदका मत यह है । किस लिये ? उसका उत्तर देते हैं
गुणमात्रांद् गुणान्तरभावेऽप्युत्कर्षा - योगादिति ॥ ५॥ ( २४१)
.. मूलार्थ - योग्यता मात्र से अन्य गुणोंकी उत्पत्ति संभव है, उत्कर्ष नहीं ॥ १५ ॥
विवेचन- गुणमात्रात् - योग्यता मात्रसे, : उत्कर्षायोगात् - उत्कृष्ट गुणों का संभव नहीं है ।