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थति सामान्य देशना विधि : २७५ जहां स्वाभाविक मामूली गुण ही न हो वहा विशेष गुणोंकी उत्पत्ति तो अवश्य ही नहीं हो सकती। गुणोके अभावमें विशेष गुणकी उत्पत्तिका होना संभव ही नहीं।
"स्वानुरूपकारणपूर्वको हि कार्यव्यवहारः" अपने अनुप या योग्य कारणों से ही कार्य होता है। कहा है"नाकारणं भवेत् कार्य, नान्यकारणकारणम्। अन्यथा न व्यवस्था स्यात् , कार्य-कारणयोः क्वचित्" ॥१४॥
~~-कारण विना कार्य नहीं हो सकता। एक कार्यका कारण दूसरे कार्यका कारण नहीं बन सकता, ऐसा न मानें तो ( अन्यथा) कार्यकारणकी व्यवस्था कदापि नहीं रह सकती। जैसे वल का उपादान कारण जो सूत्रपिंड है वह घटके कारणरूप नहीं हो सकता । अर्थात् सूतसे वल ही होगा, घडा कदापि नहीं बन सकता।
नैतदेवमिति सत्राडिनि ॥१२।। (२३८) ___ मूलार्थ-यह (व्यासका कथन) ऐसा ही है यह सही नहीं ऐसा सम्राट् राजर्षिका मत है ॥१२॥
विवेचन-सम्राट् राजर्षिका कहना है कि व्यापका कथन यथार्थ नहीं, किस कारणसे ? कहते हैं
संभवादेव श्रेयस्त्वसिद्धेरिति ।।१३।। (२३९)
मूलार्थ-योग्यतासे ही श्रेयस्त्व(श्रेयपना)की सिद्धि होती है ॥१३॥
विवेचन-संभवादेव- योग्यतासे ही, श्रेयस्त्वसिद्धेः- सर्व प्रयोजनोका सिद्ध होनेका श्रेय ।