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गृहस्थ विशेष देशना विधि : २३३. ततः आगमैकपरतेति ॥५४॥ (१८७) मूलार्थ-जिन आगमको ही प्रधान माने ।।५४||
विवेचन-आगमः-जिन सिद्धांत-त्याहाद, एकपरता-वही एक (अन्य नहीं) मुख्य है । तथा हर समय श्रीजिनसिंद्धातको ही सब क्रियाओंमें प्रधान माने तथा शकाके समय आगमके वोधके अनुसार चले। उसमे एकपरता रखे। सर्व क्रियाओमें आगमको प्रधान समझकर प्रवृत्ति करे।
ततः श्रुतशक्यपालनमिति ॥५५॥ (१८८) मूलार्थ-आगमसे सुने हुए का यथाशक्ति पालन करे।।५५॥ विवेचन-श्रुतस्य-आगमसे जो उपलब्ध हुआ है-जो सुना है उसका । शक्यस्य-जो करनेकी क्षमता हो उतना अनुष्ठान, पालनम्-उत्समें प्रवृत्ति-सामायिक, पौषध आदि करना।
आगमसे जो कुछ सुना हो तथा जितना करनेकी शक्ति हो उस तरह उतनेका पालन करे, उसमें प्रवृत्ति करे सामायिक, पौषध आदि करे तथा श्रवण किये हुएका पारायण व मनन करे । तथा-अशक्ये भावप्रतिवन्ध इति ॥५६॥ (१८९)
मूलार्थ-अशक्य अनुष्ठानमें भावना रखे ॥५६||
विवेचन-उशक्ये-जो न पाला जा सके, उस प्रकारकी शक्ति सामग्रीके अभावसे जिसका पालन न किया जा सके, जैसे साधुधर्मः आदिकी अन्तःकरणसे भावना रखना। " मनुष्य जितना कर सके उसे करना चाहिये। जो अनुष्ठान उसे.