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२५६ धमबिन्दु ' तस्मादनन्तमजरं इरमं प्रकाश,
तचित्त ! चिन्तय क्रिमेभिरसविकल्पैः । यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य
योगादयः कृपणजन्तुमतां भवन्ति' ॥१४०॥ -~-सर्व कामको दोहन करनेवाली लक्ष्मीके' प्राप्त होनेसे भी क्या : शत्रुओके मस्तक पर पैर रखा पर उससे क्या ? स्नेहीजनोंको वैभवसे परिपूर्ण कर देनेसे भी क्या और कल्पांत तक भी प्राणियोका तन बना रहा उससे भी क्या 2 ये सब होने पर भी शाश्वत सुखको अर्पण करनेवाली मुक्तिके न मिलनेसे यह सब कुछ न होनेके समान है। क्योंकि इनका सुख नाशवान तथा दुःख मिश्रित है। अतः हे चित्त ! चक्रवर्ती तथा देवकी ऋद्धिसे भी अधिक, अनंत, अजर (जरारहित ) परम प्रकाशरूप, मोक्षसुखका चिंतन कर । उपरोक्त असद् विकल्पोसे क्या होनेवाला है? क्या लाभ है। विषय- सुखकी प्राप्तिके लिये रंक समान प्राणियोंके लिये भुवनपति और देवत्वकी प्राप्ति तथा उसका सुख भी मोशमुखका, आनुपगिक सुख है. अर्थात् भीतर समा जानेवाला सुख है।
तथा श्रामण्यानुराग इतिः ॥९१॥ (२२.४) मूलार्थ-और साधुत्वमें अनुराग रखे ॥११॥
विवेचन-शुद्ध साधुभावनाके ऊपर प्रीति रखना चाहिये । 'मैं कब शुद्ध साधु,बनूंगा' ऐसा भाव मनमें रखे, जैसे--- "जैन मुनिव्रतमशेषभवात्तकर्स:--
संतानतानवकर स्वयमभ्युपेतः ।