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गृहस्थ विशेष देशना विधि : २५९ विशेष धर्मका पालन करे ॥१८॥
विवेचन-स्तोकान्-थोडे-तुच्छ, गुणान्-जो गुण श्रावकके योग्य हैं, समाराध्य-पालन करनेसे-अच्छी तरह आरावन करनेसे, बहूनाम्- श्रमणके योग्य गुणोंको, जायते-होता है, आराधनायोग्या-परिपालनके लिये उचित अवस्थाको प्राम करना, तस्मादइसीलिये, आदौ-पहले, अयम्-यह गृहस्थधर्म, मत!-सत्पुरुष संमत ।
जो मनुष्य पहले श्रावक धर्मका पालन भली भांति कर सकता है वही श्रमगके गुणोंकी आराधनाके योग्य कहा जा सकता है। जो गृहस्थधर्म ही न पाल सके वह साधुधर्मके योग्य कैसे हो सकता है ? अतः पहले यह गृहस्थधर्मके बारेमें कहा है जिसे पहले पालन करनेसे इन अप गुणोंकी आराधनाके बलसे अधिक गुणोंके लाभमें बाधक कर्म कलंकके मिट जानेसे उन गुणोंकी प्राप्ति व आराधनाका सामर्थ्य होता है, तब ही मनुष्य चारित्र ग्रहण करने के योग्य बन सकता है।
यह न्याय पुरुष विशेषकी अपेक्षासे है अर्थात् सर्व सामान्यके लिये है । अन्यथा उस प्रकारके सामर्थ्यसे जिनका चारित्र-मोहनीय (चारित्र लेनेमें अंतराय करनेवाला कर्म) निर्वल हो जाता है ऐसे स्थूलभद्र आदि महापुरुषोको इस क्रमको छोड कर भी शुद्ध सर्वविरतिका लाभ हुआ है ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। अर्थात् बिना विशेष धर्म ग्रहण किये ही वे सीधे साधु वने हैं।
श्रीमुनिचन्द्रसूरि विरचित धर्मबिंदु वृत्तिमें विशेष गृहस्थधर्म विधि नामक
तृतीय अध्याय समाप्त हुआ।