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यति सामान्य देशना विधि : २७१ "तित्ये सुत्तत्थाणं, गहणं विहिणा उ तत्य तित्थमिदं। उभयन्न चेव गुरू, विही उ विणयाइओ चित्ते" ॥१४॥ "उभयन्नू विय किरियापरो, दृढं पवयणाणुरागी य। स समयपरुवगो, परिणो य पन्नो य अञ्चत्थं ' ॥१४५॥
-तीर्थमें विधिसे सूत्र और अर्थका ग्रहण होता है। सूत्रार्थको जाननेवाला गुरु तीर्थ कहलाता है। विधि तो विनय आदि है । वह गुरु सूत्रार्थका ज्ञाना, क्रिया तत्पर, दृढ, प्रवचन अनुरागी, जैनागममें श्रद्धा सहित परिपक, अन्य शास्त्रोंमें निपुण और स्वसिद्धांतमे कुशल होता है।
शास्त्रका अभ्यास होनेसे बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त है तथा तत्वको समझता है। मन, वचन व कायाके विकारों रहित हैं। सघ पर भक्ति रखनेवाला है। उनका कल्याण करनेका इच्छुक है। प्राणी मात्रके हितमें तत्पर होना चाहिये। सब उसका वचन मान्य रखें एसा वह होना चाहिये। लोगोंको उनके गुण समझ कर अन्य गुण उसमें पैदा करे। सबसे मैत्री रखे और सद्बोध दे। गंभीर हो व मनमें समभाव रखे। परीपहसे विषाद पैदा न हो। व्रतपालनमें धैर्य हो। मन व चहेरा प्रफुल्लित हो । चिंता व उद्वेग रहित हो। सहनशील हो। गुरु शांत व अल्प कषायवाला हो। अन्योंको उपदेश दे सके । गच्छनायक द्वारा गुरुपद या आचार्यपद मिला हुआ हो।
दीक्षार्थीके १६ गुण तथा गुरुके १५ गुणोका वर्णन किया। इन दोनोंका मेल दुर्लभ है । अतः यहां अपवाद मार्ग बताते हैंपादाद्धगुणहीनो मध्यमाऽवराविति ॥५॥ (२३१)