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२७२ : धर्मविन्दु
मूलार्थ-चतुर्थ भाग व अर्द्ध भागके गुण कम हों तो मध्यम व जघन्य जानो ॥५॥
विवेचन-पादन- चौथे भागसे, अर्द्धन- आधा, हीनी-इन गुणोंमें कमी, मध्यमाञ्वरी- मध्यम व जघन्य योग्यता ।
पूर्वोक्त गुण सब एक साथ हो तो दीक्षार्थी व दीक्षा देनेवाला उत्तम समझना चाहिये। उसमें चतुर्थ भागके गुण हों तो मध्यम समझना चाहिये । आधे गुण कम हो तो जघन्य समझना।
इस बारेमें दस प्रकारके भिन्न भिन्न मत प्रदर्शित किये गये हैं। इसके बाद शास्त्रकार स्वयं अपना मत कहते हैं
नियम एवायमिति वायुरिति ॥६॥ (२३२)
मूलार्थ-दीक्षा लेनेवाले तथा देनेवालेमें उपरोक्त सर्व गुण अवश्य होने चाहिये, यह वायु नामक आचार्यका मत है ॥६॥
विवेचन-नियम एव- अवश्य ही, अयं- पूर्वोक्त, सर्वगुण संपन्न,, अन्य नहीं । अर्थात् जिसमें चौथे अंश- आदि गुण कम हो वह योग्य नहीं । वायु:- वायु नामक प्रवादी विशेष।।
वायु नामक, आचार्यका स्पष्ट मत है कि दोनो गुरु व शिष्य संपूर्ण गुणवाले हो । परिपूर्ण गुणवाले. ही क्यो योग्य है ? उत्तरी कहा हैसमग्रगुणसाध्यस्य तदर्द्धभावेऽपि तसिध्य
संभवादिति ।।७।। (२३३) मूलार्थ-सकल गुणसे साध्य कार्यकी सिद्धि आधे गुण होने पर असंभव है ।।७।।