________________
यति सामान्य देशना विधिः २६१
सदाज्ञानाराधनायोगाद्, भावशुद्धेर्नियोगतः। उपाय संप्रवृत्तेश्च, सम्यक्चारित्ररोगतः ॥२०॥ मूलार्थ - भगवानकी सज्ञाकी आराधना से हुई मात्रशुद्धिसे, सम्यक् चारित्र पर अनुराग रखनेसे तथा साधनोंमें प्रवृत्ति करनेसे अवश्य ही चारित्र मोहनीय कर्म से मुक्त होता है |
}
विवेचन - सत्- कलंकरहित, आज्ञाराघनायोगात् - यतिधर्मके योग्य न होने से श्रावकधर्मका पालन करे ऐसी जिनाज्ञाको पालन करनेसे, भावशुद्धि - उससे उत्पन्न मनकी निर्मलतासे, नियोगतः - अवश्य ही, उपाय संप्रवृत्तेश्च - शुद्ध हेतुको अंगीकार करने की प्रवृत्तिसेचेासे, और सम्यक् चारित्ररागतः - निर्दम्भ चारित्रकी अभिलाषासे, उसमें होनेवाले अनुरागते ।
प्रभुकी शुद्ध आज्ञाको पालन करनेसे- श्रावक धर्मके पालन करनेसे हृदयकी जो निर्मलता प्राप्त होती है और सम्यक् चारित्र पर जो राग है उसको पाने की जो अभिलाषा है, शुद्ध हेतुको अंगीकार करनेकी प्रवृत्तिसे जो अणुत्रतादिक के पालन करने में है - इन तीन चित्तनिर्म छता, चारित्र पर रॉग व हेतुमे प्रवृत्ति होनेसे चारित्र मोहनीय कर्म क्षय होते हैं। इससे "अन्य कोई उपाय नहीं है ।
यह शंका करे कि चारित्र मोहनीय कर्मसे मुक्त हो जाने पर भी यह कैसे सिद्ध होता है कि बादमें पूर्ण पचखाण लेनेवाली बनेगा ? 'उत्तर इस प्रकार हैं
विशुद्धं सदनुष्ठानं, स्तोकमप्यर्हतां मतम् । तत्त्वेन तेन च प्रत्याख्यानं ज्ञात्वा सुबह्नपि ॥२१॥