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२६४ : बिन्दु
मात्य पौरजनबहुमतः, अद्रोहकारी, कल्याणाङ्गः, श्राद्ध:, स्थिरः, समुपसंपन्नश्चेति ||३|| (२२९)
मूलार्थ - दीक्षा लेने योग्य पुरुषके लक्षण कहते हैं - १ आर्यदेशमें उत्पन्न, २ विशिष्टजाति व कुलवाला, ३ कर्ममल प्रायः क्षीण हों, ४ उससे निर्मल बुद्धिवाला, ५ मनुष्य भव दुर्लभ है, जन्म मरणका निमित्त है, संपत्ति चंचल है, विषय दुःखका कारण है, संयोगमें वियोग है, मृत्यु प्रतिक्षण है, कर्म विपाक भयंकर है - ऐसी संसारकी असारताको जाननेचाला, ६ अतः संसारसे विरक्त, ७ अल्प कपायवाला, ८ थोडा हास्य आदि ( नोकपायवाला), ९ कृतज्ञ, १० विनयवान, ११ पहले भी राजा, मंत्री तथा पुरजन आदिद्वारा सम्मानित, १२ द्रोह न करनेवाला, १३ कल्याणकारी अंग व मुखाकृतिवाला, १४ श्रद्धावान, १५ स्थिर, १६ दीक्षाके हेतु गुरु समीप आया हुआ || ३ ॥
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विवेचन - प्रवजन - पाप से उत्कृष्ट चारित्रद्वारा दूर जानेवाला - वह प्रवज्या, उसके योग्य - प्रव्रज्यार्हः, आर्यदेशोत्पन्न-मगध आदि साढे पच्चीस देशोके मध्य जन्मा हुआ। आजकल आर्य व अनार्य का पुराना भेद समाप्त हो गया है । फिर भी जैन यति होनेके पात्र वही मनुष्य है जो मांस-मदिरा, वेश्या, चोरी व जुआ खेलना - आदि व्यसनोंसे रहित हैं अथवा तो इनको बुरा समझते हैं और जन्म तथा पुन
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