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गृहस्थ विशेष देशना विधि : २५७
पीछे रहे हुए चाहे वह ज्ञान, बुद्धि, सद्गुण अथवा विद्या किसी में भी हो दया व करुणा भावना रखे, तिरस्कार नहीं । व्यसनी वा दुराचारी लंगडे कुत्ते की तरह ही दयाके पात्र हैं। दुखोकों दूर करनेकी भावना रखे । दुखीजनों पर करुणा करे और दुःख दूर करने का प्रयत्न | माध्यस्थ या उपेक्षाभाव दोषित लोगोके प्रति हो। उसी तरह अन्य धर्मावलंत्री जनोंकी तरफ भी माध्यस्थ्य व सहनशीलता रखना आवश्यक है | राग या द्वेष करना नहीं। कोई गलत सह पर जावे तो उसे समझाना पर न समझे तो राग या द्वेष न करके उपेक्षाभाव रखे - उदासीनता रखे। इन चार भावनाओको हृदयंगम करे ।
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गृहस्थधर्मकी समाप्ति कर के उपसंहार करते हुए, शास्त्र कार कहते हैंविशेषतो गृहस्थस्य, धर्म उक्तो जिनोत्तमैः । एवं संभावनासारः परं चारित्रकारणम् ||१६|| मूलार्थ - श्रीजिन भगवानने गृहस्थका विशेष धर्मः जो उत्कृष्ट चारित्रको देनेवाली है तथा जिसमें सद्भावना मुख्य है वह इस प्रकार कहा है ॥१६॥
विवेचन-विशेषतः - सामान्य धर्म से भिन्न, गृहस्थस्य-गृहस्थका धर्म, उक्तः- निरूपित, जिनोत्तमै:- अरिहंत भगवंत द्वारा, एवं उपरोक्त प्रकारसे, सद्भावनासार:- परमपुरुषार्थ - मोक्षके अनुकूल भावनाः जिसमें मुख्य है या भाव श्रावक धर्म है । और कैसा है ? परं - भवांतर में भी अवन्ध्य, चारित्रकारणम् - सर्वविरतिका हेतु ॥ श्री जिन भगवान श्रावकका यह विशेष धर्म, इस प्रकार कहा हैं। यह उत्कृष्ट चारित्रको प्रदान करनेका कारणरूप है तथा इसमें
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