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२३२ : धर्मविन्दु
मलार्थ-तब गुरुके - सम्मुख पचखाण प्रगट (उच्चार) करे ॥५१॥
विवेचन-जो पञ्चक्खाण पहले घर पर किया है उसको शुद्धिसहित उत्तम साधुके समक्ष प्रगट करे अर्थात् गुरुकी साक्षीके लिये उसका गुरुके सामने उच्चारण करे। ततो जिनवचनश्रवणे नियोग इति ॥५२॥ (१८५)
मूलार्थ-फिर जिनवचन सुनने में ध्यान लगावे ॥५२॥
निवेचन-श्रावक-सम्यकदर्शन आदिको प्राप्त करके हमेशा साधुजनोंसे सामाचारी-अपना कर्तव्य संबधी उपदेश-सुने वह श्रावक है । इस अर्थको पूरा करनेके लिये इसका अनुसरण करनेके लिये जिनवचन-धर्मशाला सुननेमें मनको लगाना चाहिये । धर्मश्रवण बार बार करना चाहिये । अतः प्रतिदिन श्रवण करना जरूरी है । ततः सम्यक् तदर्थालोचनमिति ॥५३॥ (१८६)
मूलार्थ-तब जिनवचनके अर्थ पर सम्यक्रीतिसे विचार व मनन करे ॥५३॥
विवेचन-संदेह, विपर्यय तथा अनध्यवसायका त्याग करके सम्यक् प्रकारसे जो जिनवचन सुना है उस पर उसके अर्थ पर मनन करना चाहिये । उसे ठीक प्रकारसे विचारना चाहिये । उस पर बार बार विचार करना चाहिये, क्योंकि " चिंतन विना श्रवण वृथा है"। अतः यदि मनन न करे तो सुननेका कुछ भी गुण नहीं होता, अतः मनन करे।