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२५० : धर्मविन्दु
सूलार्थ - योगका अभ्यास करना चाहिये ॥८५॥
विवेचन - योगस्य सलिंबन व निरालम्बन 'मेंदवाला योगचित्तको एकाग्र करनेकी प्रवृत्ति, अभ्यास- बार बार प्रयत्न करना ।
पतंजलि कहते है - " योगश्चित्तवृत्तिनिरोध " - योग चित्तकी वृतिका निरोध है । चित्त प्रतिक्षण अस्थिर रहता है उसको एकाप्र करनेका प्रयत्न करे । यह योग सालंबन और निरालंबन इस तरह दो प्रकारका है । स्थूल पदार्थ पर मनको एकाग्र करना सालंबन व तत्त्व या निराकार वस्तुका ध्यान निरालंबन योग है। कहा है
" सालम्बनो निरालम्वनश्च योगः परो द्विधा ज्ञेयः । जिनरूपध्यानं खल्वाद्यः तत्तत्त्वर्गस्त्वपरः " ||१३३|| --- उत्कृष्ट योग सालंबन और निरालंबन - ऐसे दो प्रकारका है । जिनेश्वरकी प्रतिमा या समवसरण में बैठे जिनके रूपका ध्यान करना सलिवन है, तथा जिनतत्त्व या केवलज्ञानादि सहित जीवप्रदेशके तत्त्वका चिंतन करना निरालंबन योग है। सालंबन योग अधिक आसान है, अतः जिनकी प्रतिमाका ध्यान करे |
तथा - नमस्कारादिचिन्तनमिति ॥ ८६ ॥ (२१९) मूलार्थ - नमस्कार आदिका चिंतन करे | ८६ ॥ विवेचनं- नमस्कार (नवकार) पंच परमेष्ठि तथा अन्य स्वाध्याय व ज्ञानग्रंथोंका अभ्यास तथा चिंतन करे ।
तथा - प्रशस्त भाव क्रियेति ॥८७॥ ( २२० ) मूलार्थ - प्रशंसनीय अंतःकरण (भाव) करना ||८७ ||