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२३६ : धर्मविन्दु हैं वैसे ही अनादि अनंत द्रव्यके पर्याय भी क्षण क्षणमें उत्पन्न व नष्ट होते हैं।
"स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य, रेणुना ब्लिष्यते यथा गात्रम् ।
राग-द्वेषाक्लिन्नस्य, कर्मवन्धो भवत्येवम्" ॥१२२॥
--जैसे स्नेह (तेल से लिम शरीरको रज चिपटती है वैसे राग द्वेषसे लित आत्मामें कर्मबन्ध होते हैं या कर्म उसको चिपटते हैं इयादि प्रकारसे शास्त्रवचनोका चितन करना चाहिये।
तथा-गुरुसमीपे प्रश्न इति ॥५९॥ (१९२) मूलार्थ-और गुरुसे प्रश्न करने चाहिये ॥५९।।
विवेचन-जब निपुण व सूक्ष्म वुद्धिसे विचार करने पर भी तथा गंभीरतासे सोचने पर भी कोई भाव स्वय समझमें न आवे, किसी वस्तुका निश्चय स्वयं न कर सके तब संवेगी व गीतार्थ गुरुके पास शुद्ध विनयपूर्वक इस प्रकार प्रश्न पूछना चाहिये। जैसे- “हे भगवन् । मेरे यत्न करने पर भी मै इसका अर्थ नहीं समझ सका ई था मुझे अर्थज्ञान न हो सका अतः आप हमें उसका बोध दीजियेहमें समझाइये । गुरुगमसे कई वातें समझम आती हैं। ____तथा-निर्णयावधारणमिति ॥६०॥ (१९३)
मूलाथ-गुरुके निर्णय किये हुए अर्थकी, वचनकी अब धारणा करे ॥६॥
विवचन-निर्णयस्य-गुरुद्वारा निरूपित निश्चयकारी वचनका, अवधारणम्- ध्यान देकर ग्रहण करना।
जाता है।