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गृहस्थ विशेष देशना विधि : २४५ 1 - मूलार्थ-अधिक गुणवाले प्रवृत्ति करे ॥४॥ -- विवेचन-प्रायः प्रत्येक प्रयोजन व कार्य गुण व लाभसे तथा दोषसे मिश्रित होता है। उसके गुणदोषका विवेचन मनसे करना चाहिये और अधिक गुणवाले प्रयोजनमें प्रवृत्ति करना चाहिये । जैसे कि वणिक अधिक लाभ व कम हानिवाला व्यापार करता है। आप मुनिजन इस बारेमें कहते हैं कि- "अप्पेण बहुमेसेजा, एयं पडियलक्खणं ।
सवासु पडिसेवासु, एवं अट्ठपयं विऊ ' ॥१२९॥
- अल्प दोषसे अधिक गुणोंकी इच्छा करना पंडितका लक्षण है। और सर्व अपवाद कार्योंमें यही सूत्र ध्यानमें रखना चाहिये ।। ____ इस जगतमें कोई भी कार्य संपूर्ण व शुद्ध नहीं है अत' गुणदोषका विचार करके अधिक लाभदायक कर्म करनेमें तत्पर रहे। तथा-चैत्यादिपूजापुर सरं भोजनमिति ॥७६।। (२०८)
मलार्थ-चैत्य आदिकी पूजा करके भोजन करना चाहिये। '' विवेचन-चैत्यादि- जहां जिनविंच हों उन मंदिरोकी तथा साधु व साधर्मी भाईयोंकी, पूजा- मंदिरमे फूल व धूप आदिसे तथा साधुवसाधर्मिककी अन्न, पान आदिके उपचारसे, भोजनम्-अन्न ग्रहण। " भोजन करनेका समय होने पर मंदिरमें श्रीवीतगग प्रभुकी पूजा करके तथा साधु व साधर्मिक जनोंकी यथोचित सेवा करके उसके बाद भोजन या अन्न ग्रहण करे। कहा भी है कि--
"जिणपूओचियदाणं, परियणसंभालणा उचियकिच्चं । ठाणुववेसो य तहा, पञ्चक्खाणस्स संभरणं" ॥१३०॥