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२६४ : धर्मविन्दु
मूलार्थ-अंत: अनुष्ठान करनेके लिये यत्न करना चाहिये।
विवेचन-अत एवं-विहित अनुष्टानमे-उसके प्रति, यत्न सर्वे उपाधि रहित उद्यम।
शास्त्रोक्त विधिवत् आचरण करनेसे ही अतिचार कम होते हैं, अतः शास्त्रोक आचरण करनेके लिये शुद्ध प्रयत्न करते रहना चाहिये । कहा है कि
" तम्हा निञ्चसईए, वहुमाणेण च अहिगयगुणम्मि1
पडिवक्खदुगंछाए, परिणइ आलोयणेणं च " ॥११॥ ' ----अंगीकृत समकित आदि गुणोंके प्रति प्रयत्न करना चाहिये, व्रतोका स्मरण निय करना चाहिये । उनका कारण फल, विघ्न आदिके विचारसे चित्तमे स्थिरता आती है । उसके प्रति बहुमान तथा उच्च भावना रखनी चाहिये । प्रतिपक्ष अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन आदि जो बुरे फल देनेवाले हैं, ऐसा विचार करना और शुद्ध परि'ति-धर्मके तथा व्रतोंके प्रति शुद्ध परिणाम रख कर उसके शुद्ध फल-मोक्षको विचारना चाहिये। 1. 'तित्थंकरमत्तीए, सुसाहुजणपन्जुवासणाएं य।। ' , उत्तरगुणसद्धाए, पत्थ सया होइ जइयत्वं ॥११२॥ " ,
-तार्थ करकी भक्तिसे, साधुजनोंकी सेवासे, उत्तर गुणमें श्रद्धाले, 'निरंतर उच्च भावना से सर्वदा प्रयत्न करना चाहिये।
उत्तरगुणशुद्धा- समंकितसे अणुव्रत तथा अणुव्रतसे महाव्रत लेनेकी अभिलापा- 'बादके गुणों को प्राप्त करनेकी इच्छा व उसमे श्रद्धा ।