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गृहस्थ विशेष देशना विधि : २२३
आदि कर्मका अति अनुबंध आदि नहीं होता और सम्यक्त्व प्राप्त होता है तब अतिचार असंभव होते हैं- होही नहीं सकते । अन्यथा सम्यक्त्वके अंगीकार करनेमें ही अतिचार लगता है ।
तब ये अतिचार किस तरह नहीं हों- कहते हैंविहितानुष्ठानवीर्यतस्तज्जय इति ||३७|| ( १७० ) मूलार्थ - अंगीकृत सम्यक्त्वके आचरण (सामर्थ्य ) से अतिचार विजित होते हैं ||३७||
विवेचन-विहितानुष्ठान - विहित या अंगीकृत सम्यक्त्वके अनुष्ठान व नित्यस्मरणके आचरणसे, वीर्यतः - उसकी शक्तिजीवके अनुष्ठानके सामर्थ्य से तज्जयः- अतिचारोंका जय- उनके उपर विजय ।
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सम्यक्त्वके नित्य स्मरण आदि अनुष्ठानसे जीवके सामर्थ्यबलसे अतिचार कम होते हैं- उनका नाश होता है । विहित अनुठान (शास्त्रोक्त आचरण) ही सर्व अपराधरूप व्याधिको नाश करनेका महौषध है ।
सत्श्रद्धासे सद्विचार उत्पन्न होता है और उससे सन्कार्यकी उत्पत्ति होती है । सत्श्रद्धा आधार है तथा जीवके वल, वीर्य व पराक्रमसे अतिचार समाप्त होते हैं। अग्निमें धूंआ होने पर उसे सतेज करते हैं अत. अतिचार भयसे व्रतयाग नहीं पर शुद्ध नतको पुष्ट करनेसे अतिचार समाप्ति होगी । इस विषयका उपदेश करते हैं
अत एव तस्मिन् यत्न इति ||३८|| (१९७१)