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गृहस्थ विशेष देशना विधि : २२९ मूलाथै-और सम्यक् प्रकारसे पञ्चक्खाण ग्रहण करे॥४५॥
विवेचन-सम्यक्-जैसे बने वैसे मान, क्रोध, 'अनामोग (अविचार) आदि दोषोंका त्याग करके, प्रत्याख्यान- मूलगुण तथा उत्तरगुणकी वृद्धिके लिये पञ्चक्खाण करना। इच्छानिरोघ इसका हेतु है। क्रिया- ग्रहण करना। ___ मान, क्रोध, अनाभोग आदि दोषोको टालते हुए पञ्चकलाण करना चाहिये । इससे इच्छानिरोध होता है तथा मन और आत्माकी क्रमश शुद्धि प्रकट होती है। परिणाम किये हुए सावध कर्मके सेवनके साथ अपरिमित सावद्यका त्याग करनेसे महान् प्राप्ति होती है। कहा है कि
" परिमितमुपभुक्षानो, ह्यपरिमितमनन्तकं परिहरश्च। प्राप्नोति च परलोके, ह्यपरिमितमनन्तक सौख्यम्" ॥१२॥
-परिमित सायद्य कर्म करते हुए भी अनन्त अपरिमित सावद्यका त्याग करनेवाला परलोकमें निश्चय ही अपरिमित अनंत सुख पाता है। तथा-यथोचितं चैत्यगृहगमनमिति ॥४३॥ (१७९)
मृलार्थ-योग्य रीतिसे मंदिरमें जाना चाहिये ॥४६॥
विवेचन-यथोचित-यथायोग्य, चैत्यगृहगमनम्-जिनभवन अर्थात् मंदिरमें अरिहंत प्रभुके विंच या मूर्तिके दर्शनार्थ प्रत्याख्यान क्रियाके वाद जाना चाहिये।
पञ्चक्खाण क्रियाके बाद यथोचित रीतिसे जिनमंदिरमें प्रभुके दर्शनार्थ जाना चाहिये । श्रावक दो प्रकारके कहे हैं ऋद्धिवान तथा