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गृहस्थ विशेष देशना विधि :२२५ एवमसंतोऽवि इमो, जायइ जायो यण पिडइ कयाव । ता एत्थं वुद्धिमया, अपमामो होई काययो" ॥११॥
-इस प्रकार विरति व सम्यक् दर्शनका परिणाम या भाव गुप्त हो वह प्रगट होता है और उत्पन्न परिणाममे वृद्धि होती है कभी घटता नहीं । अत. बुद्धिमान् पुरुष अंगीकृत व्रतोंको नित्य स्मरण आदि करते हैं, इसमें अप्रमाद कर्तव्य हो जाता है।
अब सम्यकद आदि गुणोंकी प्राप्तिके लिये तथा प्राप्त हो जाने पर उनका रक्षण तथा पालन करने के लिये विशेष शिक्षा इस प्रकार देते हैं--
सामान्यचर्यास्येति ॥ ३९ ॥ (१७२)
मलार्थ-इस गृहस्थकी सामान्य चर्या(चेष्टा) इस प्रकार होती है ।
विवेचन- जिसको सम्यक्त्व आदि गुण प्राप्त हो गये है ऐसे सर्व प्राणियोकी साधारण या सामान्य चर्या या चेप्टा अर्थात् विशेप गृहत्य धर्मके पालन करनेवालेको प्रवृत्ति इस प्रकारकी होती है। कैसी होती है वह कहते है
समानधानिकमध्ये वास इति ॥४०॥ (१७३) मूलार्थ-समान धर्मबालेके वीचमें रहना चाहिये ॥४०॥
विवेचन-समाना:- तुल्य आचारवाले अथवा अधिक शुद्ध आचारवाले, धार्मिका- धर्मवाले- धार्मिक जन, वास:- रहना।
अपने समान गुणवाले या विशेष अधिक गुणवाले ऐसे धार्मिक