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२२६ : धर्मबिन्दु भाईयों के बीचमें रहना चाहिये। उसमें खास गुण यह है कि उस प्रकारके दर्शन मोहनीय कोंके उदयसे यदि कदाचित् धर्मच्युत हो अथवा स्वयं धर्मच्युत हो तो वे उसे धर्ममें स्थिर करते हैं । वह धर्ममें पुन: दृढ हो जाता है। कहा है कि
" यद्यपि निर्गतभावस्तथाप्यसौ रक्ष्यते सद्भिरन्यः। वेणुविलूनमूलोऽपि, वंशगहने महीं नैति" ॥१८४॥ ,
~~यद्यपि मनुष्य भावरहित हो जाय तो भी अन्य सत्पुरुष उसकी रक्षा कर लेते हैं। जैसे बांस निर्मूल हो जाने पर भी समूहमें होनेसे पृथ्वी पर गिरता नहीं है। सत्पुरुषोंके साथ रहनेसे उनके सदविचारोंसे बल मिलता है तथा शुद्ध आचार व शुद्ध विचार पैदा
होते हैं।
तथा-वात्सल्यमेतेविति ॥४१॥ (१७४) . मूलार्थ-इन साधर्मिकों पर बात्सल्यभाव रखना चाहिये।
विवेचन-वात्सल्यम्- अन्न, पान, तांबूल आदि देकर सत्कार करना तथा बिमारी आदिमें रात्रि जागरण करके भी सेवा व वेयावच्च करना । एतेषु- धार्मिक जनोंका ।
उन साधर्मिक जनोंका वात्सल्य तथा सेवा सत्कार आदि करना चाहिये। कारण कि यही जिनशासनका साररूप है। कहा है कि---
"जिनशासनस्य सारो, जीवदया निग्रहः कषायाणाम् । साधर्मिकवात्सल्यं, भक्तिश्च तथा जिनेन्द्राणाम् ' ॥११५||
-~-जीवदया, कषायनिग्रह, सांधर्मिक वात्सल्य और जिनेन्द्रोंकी 'भक्ति यही जिनशासनका सार है।