________________
२२० : धर्मविन्दु जीवकी विराधना आदि न हो । सूक्ष्म जीवका भी प्राणनाश न हो।
संस्तारोपक्रमण- शय्या अथवा सस्तार- सर्व अंगसे पूर्णतः शयन करना, संस्तार-- शव्याका विना निरीक्षण किये व बिना प्रमार्जिन, किये उपभोग करना- यह तीसरा अतिचार हुआ। अर्थात् शय्याको वस्त्र या चरवलेसे साफ करके तथा भली भांति देखकर उसका उपयोग करना चाहिये .
अनादर- भक्ति व बहुमान विना पौपब करना या जैसे तैसे करना ।
स्मृत्युपस्थापन- स्मृतिनाश । ये चौथा व पांचवां अतिचार सामायिक व्रतके जैमा ही है, इसकी भावना उसी प्रकारकी है।
संस्तारोपक्रमकी वृद्ध मामाचारी इस प्रकार है- पौषधोपवासवाला पडिलेहण बिना शय्या पर न बैठे, या पडिलेहण हिना पौषधशाला या शय्याका सेवन न करे । न वस्त्रको भूमिमें बिछाये । मूत्रादिक करके आने पर पुनः शय्याका निरीक्षण या पडिलेहण -करे, अन्यथा अतिचार होता है। अन्य पाट आदि वस्तुओंके विषयमें
भी जानना अर्थात् प्रत्येक वस्तु का ' प्रमार्जन किये विना उपयोग नहीं करना। ____ अब यतिथिसंविभाग नामक चतुर्थ शिक्षाबतके अतिचार कहते हैं: सचित्तनिक्षेपपिधानपरव्यपदेशमात्सर्यः .. . कालातिकमा इति ॥३४।। (१६७)