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२०० : धर्मविन्दु उस अवस्थामें कोई अन्य विवाहकी चिन्ता करनेवाला हो तो ठीक है, अन्यथा संततिकी वह संख्या पूर्ण हो जाने पर अधिक उत्पत्तिसे अधिक विवाह करने पड़ेंगे व नियमभंग होगा आदि विचारसे उत्पत्तिका निरोध अथवा कामभोगसे निवृत्ति आवश्यक है।
दूसरे आचार्य इस तरह कहते हैं
परविवाह- पर:- अन्यः अर्थात् स्वयं दूसरा विवाह करना। पूर्ण संतोष न होनेसे अन्य स्त्रीसे विवाह करना भी परविवाहकरण कहलाता है। यह स्वदारसंतोषी पुरुषको लगता है। स्त्रीके लिये स्वपुरुष संतोष तथा परपुरुष त्यागमें कोई भेद नहीं। स्वभर्तारको छोडकर अन्य सब परपुरुष ही हैं। अतः स्वदारासंतोषी पुरुषको १ परविवाहकरण, २ अनंगक्रीडा, और ३ तीवकामामिलाप-ये तीन अतिचार है वैसे ही स्त्रीको स्वपुरुषके विषयमें है। यदि वह अपने पतिको सपत्नीके ग्रहण करनेके दिन अंगीकार करती है ---उसे ग्रहण करती है तो सपत्नीकी बारी-का अतिक्रमण करनेसे उसे दूसरा अतिचार लगता है (इस्वरपरिगृहीता)। ___ अतिक्रम आदि करके परपुरुषसे गमन करनेवाली स्त्रीको तृतीय अतिचार लगता है। ब्रह्मचारीको अतिक्रम आदिसे अतिचार लगता है।
अब पांचवे अणुव्रतके अतिचार कहते हैक्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्य
प्रमाणातिकमा इति ॥२७॥ (१६०) मूलार्थ-क्षेत्र-वास्तु, स्वर्ण-चांदी, धन-धान्य, दासी-दास,