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२१२: धर्मयिन्तु विचार विना साधनोंका रखना तथा उपभोगमें अधिकता-ये पाँच अविचार हैं।
विवेचन-कन्दर्प-काम या उस हेतु वाणिका प्रयोग या मोहको उत्पन्न करनेवाले शब्द कन्दर्प है । श्रावकको अट्टहास नहीं करना चाहिये । मौका आने पर मुस्करा देना चाहिये। गंभीरता श्रावकका एक विशेष गुण है । अनर्थदंड उसे कहते है जब ऐसे वचन कहना या कर्म करना जिसका कोई प्रयोजन न होने पर उससे उलटे अनर्थ हो । अतः उससे बचनेके लिये उसे त्याग करनेरूप यह व्रत है । कदर्प आदि इसके अतिचार हैं पर मनकी तीव्रतासे ऐसा कर्म या वाणीका प्रयोग किया जावे तो व्रतभंग ही होता है ।
कुकुच-नेत्रका संकोच या विकार चेष्टा जो निंदित कही जा सके कौकुच्य कहलाती है। अनेक प्रकारके मुख, नेत्र आदिकी विकारपूर्वक चेष्टा या परिहास आदिसे होनेवाली, भाडोकी तरह होनेवाली विडम्बन क्रिया । श्रावकका कर्तव्य है कि श्रावक उस प्रकार न बोले, न हैसे, 'न वैठे, न चले जिससे लोग हसे। अर्थात् जिससे लोग हंसे ऐसी कोई क्रिया श्रावक न करे। ये दोनों कंदर्प व कौकुच्य प्रमादसे व्रतका आचरणे करनेवालेको होते हैं कारण कि ये दोनों प्रमादरूप हैं।
मौखर्य-जिसके मुख है वह मुखर । उससे होनेवाला कर्ममौखर्य । मौखर्य वह वाचालता है जिससे धृष्टताभरे प्रायः असभ्य, असत्य, असबद्ध प्रलापकी तरह वचन कहे जाते हैं। यह पापो“पदेशका दूसरा नाम है। मौखर्यसे पापोपदेशेका-पाप करनेकी प्रवृ