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२१६ : धर्मबिन्दु वाला कैसे हुआ ? " कहनेसे होती है अर्थात् इस प्रकार प्रायश्चित्त करनेसे उसकी शुद्धि होती है। - अतः " 'सामायिक न करना-करनेसे अच्छा है." ठीक नहीं। अभ्याससे मनको वश करके सामायिक करना चहिये। अतिचार सहित भी अनुष्ठान होनेसे समय व्यतीत होने पर अभ्याससे निरतिचार अनुष्टान होगा। इसके लिये आचार्योंने कहा है-- . 'अभ्यासोऽपि प्रायः प्रभूतजन्मानुगो भवति शुद्धः ॥ __-कई ज-मोसे चला आनेवाला अभ्यास भी धीरे धीरे प्रायः शुद्ध होता है या कई जन्मोंसे करते करते अभ्यास शुद्ध होता है । अतः निरतिचार शुद्ध सामायिक मनको वशमें करके अभ्याससे होगी। ___सामायिकमें मनके संकल्प प्रयत्नपूर्वक कम करने हो तो धर्मके बारेमें करना ही श्रेष्ठ है। मनको अशुभ विचरसे खींच कर शुद्ध ध्येयकी तरफ प्रवृत्त करना चाहिये । मनके दश दोष टालने चाहिये। वचनके दश दोष भी टालना । सामायिकमें मौन रखना-अथवा तो प्रभुस्तुति या धार्मिक वाचन या पठ' करना चाहिये । शरीरसे निश्चल रहना अथवा तो धार्मिक क्रियाकी विधिपूर्वक शरीरकी हलचल करना, अन्यथा नहीं । कायाके १२ दोष टालने चाहिये ।
अब द्वितीय देशावकासिक शिक्षाबतके अतिचार कहते हैआनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलप्रक्षेपा
इति ॥३२॥ (१६५) मूलार्थ-नियमित क्षेत्रके बाहरसे वस्तु मंगाना, सेवक या