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२०६ : धर्मविन्दु अब द्वितीय गुणवत-भोगोपभोगपरिमाण व्रतके अतिचार कहते हैसचित्तसंबद्धसंमिश्राभिषवदुष्पकाहारा
। इति ॥२९॥ (१६२) । मूलार्थ-सचित्त, सचित्तले संबद्ध, सचित्तसे मिश्रित, मदिरा, आसव आदिसे संसर्गवाला, अर्थ पक्क या दुष्पक- ये पांच अतिचार हैं ॥२९॥
'विवेचन-यहां सचित्त आदि (३)की निवृत्ति करने पर उसमें प्रवृत्ति करनेसे अतिचार होता है। वह अतिचार व्रतकी सापेक्षतासे अविचारसे, अतिक्रम आदि कारणोसे उत्पन्न होने पर लगता है अन्यथा व्रतभंग होता है।
सचित्तमें कन्द, मूल व फल आते है। संबद्ध-जैसे सचित्त वृक्षसे लगे हुए गूंदे या पके हुए फल आदि हों उसे खानेसे सावध आहारका परित्याग करनेवालेको सावध आहारमें प्रवृत्ति होनेसे अनाभोगके कारण अतिचार लगता है या उसमें बीज आदि रही हुई वस्तु जो सचित्त है उसे त्याग करूंगा और केवल अचित्त भाग खाऊंगा ऐसा विचार करे उसे संबद्ध अतिचार लगता है, व्रतभंग नहीं होता।
संमिश्र- अर्ध पक फल या कुछ सचित्त व कुछ अचित्त ऐसे जल आदि या तत्काल पीसे हुए आटे आदिमें रहे हुए सचित्त कणके कारण वह संमिश्र है, उसे खानेसे यह अतिचार लगता।
अभिपव-अनेक द्रव्यसंघातसे उत्पन्न मदिरा, मधु आदि