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२०४ : धर्मविन्दु है। इच्छा व तृष्णा बढती ही जाती है उसे रोकनेका यह उत्तम साधन है। इस अणुव्रतमे जो बढे उसे सन्मार्गमें लगाना ही उत्तम है। अब पहले अणुव्रतके अतिचार कहते हैं---
अधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धि
स्मृत्यन्तर्धानानीति ||२८॥ १६१) मूलार्थ-ऊपर, नीचे व तिरछा क्षेत्रका व्यतिक्रम (ये तीन), क्षेत्रवृद्धि और स्मृतिनाश- ये पांच अतिचार पहला गुणवत-दिशा परिमाणके हैं ॥२८॥
विवेचन-ऊर्ध्व-अधा-तिर्यग-व्यतिक्रमः-ऊपर, नीचे व तिरछे इस प्रकार तीन तरफ जानेका जो दिक्परिमाण होता है उसका व्यतिक्रम- ऊपरका, नीचेका, या तिरछेका व्यतिक्रम तीन अतिचार हुए । जितने क्षेत्रका प्रमाण किया है उससे बाहरसे कोई वस्तु अपने क्षेत्रमें दूसरेके द्वारा लाना या भेजना या दूसरेके द्वारा भेजना व लाना, उसमें यह अति चार लगता है। स्वयं इन दिशाओंमें जितना परिमाण किया है उससे अधिक आगे जावे तो व्रतभग होता है।
दूर देशसे वस्तु मंगानेसे अतिचार — मैं व्यतिक्रम न करूं, न कराऊ' ऐसे व्रतीको लगता है। दूसरेको जिसने सिर्फ स्वय अतिक्रम 'न करू ' ऐसा व्रत लिया है उसे नहीं लगता क्योंकि यह व्रत ही उसे नहीं है।
क्षेत्रवृद्धि- पूर्वादि दिशाओंको लेकर व्रत लिया गया है उसमें एक दिशामे कम करके ऊलटी दिशामें बढा देनेसे क्षेत्रवृद्धि अतिचार