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१९८: धर्मविन्दु है। इस तरह व्रतभंग न भी हुआ, अतः भंग व अभंगसे ये दोनों अतिचार हुए।
बाकी तीनो अतिचार दोनोको हैं। वह बताते हैं- स्वदारा • संतोषीने अपनी स्त्रीके प्रति तथा दूसरेने वेश्या व स्वस्त्री दोनोंके प्रति यद्यपि इन्होने अनगरतका- लिंग, योनिको छोड कर अन्य
अगोंके साथ क्रीडा या 'दूसरा अप्राकृतिक मैथुनका साक्षात् पञ्चक्खाण नहीं लिया तब भी इसे न करे । क्योकि ये लोग पापभीरु हैं और ब्रह्मचर्य रखनेकी ही इच्छा करते हैं पर जब पुरुषवेदके- कामभोगेच्छाके उदयको नहीं रोक सकते और ब्रह्मचर्य पालनमें असमर्थ होते हैं तब निर्वाहके लिये स्वदारसंतोष आदि करते हैं कारण कि मैथुनसे ही कामेच्छाकी तृप्ति होती है। अंतः अनंगरतका पञ्चक्खाण तो आ ही जाता है । इसी प्रकार परविवाह व कामकी तीने अभिलाषाको समझ लेना चाहिये। क्योकि उनका पच्चक्खाण होते हुए भी उनमे प्रवृत्ति होती है अतः वे अतिचार हैं। - '. दूसरे आचार्य अनंगक्रीडाके लिये इस प्रकार कहते है- व्रत लेनेवाला साक्षात् मैथुनको ही व्रत समझता है। आलिंगन आदिका नियम नहीं लिया ऐसा सोच कर स्वदारसंतोषी वेश्या आदिसे तथा परदार विरमणवती परदारसे भी आलिंगन आदि रूपसे अनंगक्रीडा करता है अतः ये, व्रतका कुछ अतिक्रम करने है पर व्रतकी अपेक्षा रखते है अतः यह अतिचार है। । स्वदार संतोषीने अपनी स्त्रीसे अन्य (भिन्न कोई भी) और दूसरेने स्वस्त्री तथा वेश्यासे भिन्न 'मन, वचन व कायासे मैथुन न