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१३६ : धर्मविन्दु तथा-भिन्न एव देहान्न स्पृष्टवेदनमिति ॥५७।। (११५) , मूलार्थ-यदि आत्मा देहसे सर्वथा भिन्न हो तो स्पर्श आदि वेदना न हो ॥५७
विवेचन-भिन्न एव-देहसे सर्वथा भिन्न-अलग, देहातदेहसे, स्पृष्टस्य-शरीरसे कंटक, जलन आदि जो इष्ट या अनिष्ट स्पर्शेन्द्रियक विषय वेदनम् -उसका अनुभव या भोग आदिकी प्राप्ति। ____ आत्मा अपनी नैसर्गिक स्थितिमें शरीरसे भिन्न है और शरीर उसका साधन है। पर जब तक वह कर्मसे बंधा हुआ है, तब तक वह देहसे भिन्न नहीं है । यदि उसे शरीरसे सर्वथा भिन्न मानें तो स्पर्श आदि इंद्रियोके योग्य पदार्थोंका चाहे वे इष्ट हों या अनिष्ट उसे कोइ अनुभव ही, नहीं हो सकता । जैसे एक व्यक्ति शय्या पर सोये या भोग करे तो दूसरेको उसका अनुभव नहीं हो सकता। इसी तरह यदि देह व आत्मा भिन्न हों तो देहके भोगका अनुभव आत्माको न हो। पर ऐसा अनुभव नहीं होता है अन: आत्मा सर्वथा भिन्न या अलग नहीं है।
तथा निरर्थकश्चानुग्रह इति ॥५८। (११६) मूलार्थ-और उपकार आदि निष्फल हो ॥५८॥
विवेचन-निरर्थका-पुरुषके संतोष लक्षण रहित, अनुग्रहःपुष्प, चंदन, स्त्री आदिका जिससे स्पर्शेन्द्रियका संबंध व संतोष हो व लाभ मिले। । यदि आत्माका देहसे संबंध न हो तो देह पर किया हुआ उपकार, चंदन, पुष्प, स्त्री आदिके नानाविध भोग जो शरीरको सुख