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१६६ : धर्मबिन्दु 'प्राणी पर द्रव्य तथा भावेसे दया, आस्तिक्य-निन भगवान द्वारा कथित ही निःशक सत्य है ऐसा मानना ।
जिस व्यक्तिमें प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्यये पाँची गुण संथा लक्षण प्रगट हो तथा जिनके हृदयमै इनका उदय हो वह 'सम्यग्दर्शनवाला है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शनकी शुद्धि होने पर गुरुको जो करना चाहिये वह कहते हैंउत्तमधर्मप्रतिपत्यसहिष्णोस्तत्कथनपूर्वमुपस्थितस्य
विधिनाऽणुव्रतादिदानमिति ॥८॥ (१४१)
मूलार्थ-उत्तम (यति) धर्मको ग्रहण करने में असमर्थ, अपने पास धर्म ग्रहण करने के लिये आये हुए पुरुषको अणुव्रत आदिका स्वरूप समझाकर उसका विधिवत् दान करें।।।
विवेचन-प्रतिपत्ति:-लेनेमें या पालनमें,असहिष्णु:-असमर्थ, तत्कथनपूर्वम्-स्वरूप व भेद सहित अणुव्रतादिको कह कर, उपस्थितस्य-ग्रहण करनेको तत्परः।
-इस भव्य-जीवके सामने जो संसारसे डर कर -धर्म ग्रहण करनेको तैयार है, उसको पहले क्षमा, मार्दव आदि यतिधर्मका सविस्तर वर्णन करके उसे यतिधर्म ग्रहण करने योग्य करना। क्योंकि वही सर्व रोगोको हरण करनेवाली औषधि है। यदि वह अभी भी विषयमुंख आदिकी तृष्णासे उत्तम ऐसे क्षमा, कोमलता आदि गुणवाले यतिधर्मको अंगीकार करनेमें असमर्थ हो तो उसे अणुव्रत आदिके