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गृहस्थ विशेष देशना विधि.: १६५ व क्षयके गुणसे, सम्यग्दर्शन-तत्त्वमें श्रद्धा जो स्वाभाविक रीतिसे या उपदेशसे होती है- . . . .
कर्मक्ष्यका रूप इस प्रकार है
खीणो निव्वायहुआसणो ध्व, छारपिहिय व्व उवसंता। वरविज्झायविहाडिय, जलणोवम्मा खमोवसमा " ॥१०॥
आयिक भाव बुझे हुए अग्नि समान, उपशमभाव राखसे ढंकी हुई अग्नि समान तथा क्षयोपशमभाव थोडा वुझा हुआ व थोडा बिखरा हुआ अग्नि हो उसके समान है।
जिन वचनको श्रद्धासे सुननेसे तथा भव्यत्वके पकने या समीप होनेसे उत्पन्न कर्मके क्षयोपशम आदिमे सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होती है। विरुद्धताका नाश करके कदाग्रह रहित शुद्ध वस्तु बतानेवाला, तीनं क्लेशसे वर्जित, उत्कृष्ट अशुभ कर्मबन्धका अभाव पैदा करनेवाला
आत्माके शुभ परिणामरूप सम्यग्दर्शन है; उसकी प्राप्ति कैसे होती हैं उसका स्वरूप या यहचान क्या है । कहते हैं"प्रशमसंवेगनिदानुकम्पाऽस्तिक्याभिव्यक्ति
लक्षणं तदिति ॥७॥ (१४०) - मूलार्थ-प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्यइन लक्षणोंवाला सम्यग्दर्शन है ॥७॥
विवेचन-प्रशम-स्वभावसे क्रोधादि क्रूर कषाय रूप विषके विकारसे उत्पन्न कटु फलको देख कर उसका निरोध करना, संवेगमोक्षकी अभिलाषा, निद-संसारसे उद्वेग होना, अनुकम्गा-दुःखी