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१७६ : धर्मविन्दु लगता हैं, अतः पूर्वोक्त अर्थ हुआ। योग तीन प्रकारके हैं-काययोग, मनयोग, वचनयोग-तीनोंके कामकी शुद्धिको योगशुद्धि कहते हैं । उपयोगसहित जाना-आना-कायशुद्धि, निर्दोष भाषण-वचनशुद्धि
और शुभ विन्तन-मनशुद्धि--इन तीनोंकी शुद्धिसे योगशुद्धि होती है । अस्खलित व विना मिले हुए प्रणिपातादि तथा दंडकसूत्रके शुद्ध उश्चार और प्रतिरहित कायोत्सर्ग करना-वन्दनशुद्धि है । तत्काल उत्पन्न शख, पणव (नौबत) आदि शुभ वाजिंत्रका नाद श्रवण करना, पूर्णकुम्भ, छत्र, ध्वज, चामर आदिको देखना, शुभ गन्धको खूधना
आदि निमित्तशुद्धि कहलाती है। पूर्वदिशा, उत्तरदिशा और जिस दिशामे जिनेश्वर या जिन चैत्य हों उस दिशाका आश्रय लेनादिशाशुद्धि है । राजा आदिके अभियोगसे पच्चक्खाणमे अपवाद रखनेको आगार शुद्धि कहते हैं। ' 'तथा-उचितोपचारश्चेति ॥१५॥ (१४८) . मूलार्थ-और देवगुरु आदिकी उचित सेवा करना ॥१५॥
विवेचन-देव, गुरु, स्वधर्मी बंधु, स्वजन, दीन अनाथ आदिकी यथायोग्य सेवा करना चाहिये अर्थात् जो जिसको योग्य हो वैसी सेवा करनी चाहिये । धूप, पुष्प, वस्त्र, विलेपन, आसन आदि देकर उनका गौरव बढाना-विनय करना यह सेवा भी विधिमें आ जाती है। अब क्रमशः अणुव्रतादिका वर्णन करते हैंस्थूलप्राणातिपातादिभ्यो विरतिरणुव्रतानि
पञ्चेति ॥१६॥ (१४९)