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१७४ : धर्मविन्दु प्रदान की। मुद्गरके आघात, समान, यह बात, जव, सेठके कानों में पड़ी तब वह एकदम निश्चल व शांत हो गया। उसकी बुद्धि प्रांत, हो गई, तथा उसका मन, पीडित हो उठा। हस्तीके समान. बुड़े मगरके करास्फालनसे, उद्वेलित हुए समुद्रके मध्यमें स्थित टूटते हुए जहाजके मनुष्यों समान व किंकर्तव्यमूढ हो गया । क्षणभर तो वह दारुण कष्टका भनुभव करने लगा । कुछ देर पश्चात् कायर मनुष्यों समान धैर्यको धारण करके, नगरके मुख्य लोगोंकी सहायतासे उत्तम रहनादि हाथमें ग्रहण करके राजाके सम्मुख विनति करनेके लिये उपस्थित हुआ। उसने प्रार्थना की कि-"हे. महाराजा! किसी भी चित्तके दोषसे मेरे पुत्र नगरके बाहर निकलने में असमर्थ नहीं हुए परंतु उस प्रकारके हिसाब आदिमें व्यग्र हो जानेसे पहले नहीं निकल सके तथा सूर्यास्तके समय जब नगरके बाहर निकलने लगे तो वेगसे चलने पर भी दरवाजे बंध हो जानेके कारण वे बाहर नहीं जा सके । अतः उनका यह एक अपराध, क्षमा कीजिए
और मेरे प्रिय पुत्रोंको, जीवनदान देनेकी कृपा किजिये । " इस प्रकार सेठके वारवार कहने पर भी राजा उनको छोड़नेको उत्साहित नहीं हुआ। इसके क्रोधको शांत करनेके लिये एक पुत्रको छोडकर अन्य पुत्रोको छोडनेकी प्रार्थना की । राजाके न माननेसे क्रमश: दो, तीन तथा चार पुत्रोंकी अपेक्षा चार, तीन तथा दो पुत्रोंको मुक्त करनेकी प्रार्थना की। अंततः उसने पांच पुत्रोंको छोड कर ही ज्येष्ठ पुत्रको मुक्त करनेकी प्रार्थना की। तब समीपस्थ मंत्री, पुरोहित आदिने भी मुक्त करनेकी अत्यंत प्रार्थना की तथा कुलका मूलोच्छेद