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१८६ : धर्मविन्दु
अधिक क्या लिखा जावे ? जिस प्रकारसे मूलगुण प्राणातिपात विरमण व्रतको कोई अतिचार न लगे उस प्रकार सर्वत्र यत्नसे कार्य करना चाहिये ।
शंका - व्रत अंगीकार करनेवालेने प्राणातिपात ( हिंसा ) का व्रत लिया है उसमें बंध आदि करनेसे कोई दोष नहीं, क्योंकि उससे व्रतभंग नहीं होता । यदि वंधादिका पञ्चकखाण लिया हो तो बंध आदि करनेसे व्रतभंग होता है, जिससे विरतिका खंडन होता है । प्रत्येक व्रतम पांच पाच अतिचार होनसे वह व्रतमें अधिकता हो जाती है अतः वष आदिको अतिचार नहीं गिनना चाहिये ।
समाधान - यह सत्य है कि प्राणातिपातका व्रत लिया है, वंध व्यादिका नहीं । परंतु प्राणातिपातका व्रत लेनेसे अर्थतः वध आदिका भीत हो जाता है ऐसा समझो, क्योंकि वध आदि प्राणातिपातके उपाय है । वध आदि करनस व्रतभंग नहीं होता किन्तु अतिचार ही लगता है | देशसे व्रतभग होना अतिचार कहलता है । व्रत अंतर्वृत्ति तथा बहिर्वृत्तिसे दो प्रकारका है। मैं मारता हूं' ऐसा विकल्प या विचार न करके कोप आदिके आवेश अन्यके प्राण जानेका न सोचकर बंध भादिकी जो प्रवृत्ति करता है उससे प्राणनाश नहीं होता, अतः दयारहित होनेसे चिरतिकी अपेक्षा बिना जो प्रवृत्ति की है वह अन्तर्वृत्तिसे व्रतभंग है और प्राणघातके अभाव से बहिर्वृत्तिसे व्रतका पार्लन हुआ है या भग नहीं हुआ । व्रतका देशसे भंग तथा देशसे पालन अविचारके नामसे पहचाना जाता है। कहा है कि---