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१८० : धर्मविन्दु आहारत्याग आदि गुणों सहित निवास करना उपवास कहलाता है। कहा है
" उपावृत्तस्य दोषेभ्यः, सम्यग्वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयो, न शरीरविशोषणम्" ॥१०३॥
--दोपसे निवृत्त होकर गुणो सहित सम्यक् प्रकारसे रहनाउपवास कहलाता है, गुण बिना शरीर गोषण उपवास नहीं है। इस तरह पौषध सहित उपवास करनेको पौषधोपवास व्रत कहते है। ____ अतिथये विभजनम्-अतिथिसविभागः-श्रीवीतरागके धर्मका पालन करनेवाले साधु, साध्वी, श्रावक या श्राविका-ये अतिथि कहलाते हैं। इनको न्यायोपार्जित व कल्पनीय अन्नपानादिका विभाजन करके योग्य-रचित रीतिसे अर्पण करनेको अतिथिसंविभाग कहते हैं।
उमास्वाति वाचकद्वारा रचित 'श्रावकप्रज्ञप्तिसूत्र में भी इस प्रकार कहा है कि-" अतिथिसंविभाग व्रत उसे कहते हैं कि अतिथि अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविकाको घर पर लाकर या इनके आने पर भक्तिसे उठना, आसन देना, पैर धोना, नमस्कार करना श्रादि रीतिसे सेवा करके अपनी समृद्धिकी शक्तिके अनुसार अन्न, पान, वस्त्र, औषध, स्थान आदि देकर संविभाग करना।
ये चारो-सामायिक, देशावगासिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग-शिक्षावत कहलाते है। ततश्च एतदारोपणं दानं यथार्हे साकल्यवैकल्या-,
भ्यामिति ।।१९।। (१५२) मूलार्थ-जिस प्रकार योग्य हो, सकलता या विकलतासे