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गृहस्थ विशेष देशना विधि : १७५ करने से महापाप होता है ऐसा कहने पर क्रोधके मन्द्र हो जानेसे राजाने सेठके ज्येष्ठ पुत्रको मुक्त कर दिया !
इस काका भावार्थ (उपनय) इस प्रकार है
इस कथानमें भाये हुए वसंतपुर नगर, राजा, श्रेष्ठी और छ पुत्रोंकी तरह क्रमशः यह संसार, श्रावक, गुरु तथा षट्जीवनिकाय हैं । जैसे वह सेठ शेष पुत्रोंकी उपेक्षा करके एक ही पुत्रको मुक्त करा पाता है और पुत्रोंके घकी अनुमति नहीं देता, उसी प्रकार गुरु भी अपने पुत्र सम षट्जीवनिकायरूप गृहस्थको साधु धर्म देकर श्रावकसे जो उनका वध करना चाहता है- मुक्त कराना चाहते हैं और उसके वर्तमानमें मुक्त करनेकी इच्छाके न होनेसे ज्येष्ठ पुत्र सभ
कायको शेषकी उपेक्षा करके भी मुक्त कराते हैं, तो गुरुको शेष कायके वघका अनुमति दोष नहीं है । अर्थात् श्रावकको विशेष गृहस्थ धर्म अंगीकार कराने में जो पाप व्यापार अंश श्रावक करता है उसका अनुमोदन दोष गुरुको नहीं होता ।
विधिसे अणुव्रतादि ग्रहण करनेका पहले कहा है, वह विवि कहते हैं-
योग़वन्दननिमित्तदिगाकारशुद्धिविधिरिति ॥ १४ ॥ (१४७)
मूलार्थ - योगशुद्धि, वन्दनशुद्धि, निमित्तशुद्धि, दिकुशुद्धि और आगारशुद्धि-ये अणुव्रतादिकी प्राप्तिमें विधि हैं ||१४|| विवेचन-यहां मूलमे शुद्धि शब्द आया है, वह सबके साथ