________________
१६४ : धर्मबिन्दु
व्रतको ग्रहण 'करना न्याय्य है। यदि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो तो १२ व्रत धारण करना वृथा है । क्योकि तब वे निष्फल हो सकते हैं। कारण कि बिना क्रियाका भाव फल नहीं होता । कहा है
" सस्यानीवोपरे क्षेत्रे, निक्षिप्तानि कदाचन । न व्रतानि प्ररोहन्ति, जीवे मिथ्यात्ववासिते ||१९|| " संयमा नियमाः सर्वे, नाश्यन्तेऽनेन पावनाः । क्षयकालाजलेनेव, पादपाः फलशालिनः " ॥१००॥
— जैसे ऊपर भूमिमें बोये हुए बीज कभी नहीं ऊगते उसी प्रकार मिध्यात्ववासना से भरे हृदय में ये व्रत नहीं फलते, इनके अंकुर नहीं निकलते या कर्मक्षय रूप फल पैदा नहीं होता । जैसे प्रलयकालकी अग्निसे सभी फलशाली वृक्ष नष्ट हो जाते हैं वैसे ही इस मिथ्यात्व से सब पवित्र संयम और नियम नाश हो जाते हैं ।
सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति कैसे होती है सो कहते हैं—
जिनवचनश्रवणादेः कर्मक्षयोपशमादितः सम्यग्दर्शनमिति ॥ ६॥ (१३९)
मूलार्थ - जिनवचनके श्रवणादिकसे और कर्म के क्षयोपशम आदि से सम्यग्दर्शन होता है ॥६॥
विवेचन- जिनवचनश्रवणादे: - जिन भगवानके वचनका श्रवण तथा उसमें श्रद्धाकी उत्पत्ति तथा भव्यत्वके परिपाकसे उत्पन्न जीवकी वीर्यशक्ति और उससे, कर्मक्षयोपशमादितः - कर्म याने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मिथ्यात्व मोह आदिका क्षयोपशम, उपशम