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गृहस्थ विशेष देशना विधि : १६९
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-उपदेष्टा गुरु उपदेश करनेसे होनेवाले अपने श्रमका विचार किये बिना कल्याणका उपदेश करे । हितका उपदेश करनेवाला गुरु अपने व दूसरे दोनों पर अनुग्रह करता है ।
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क्यों यतिधर्मके अयोग्य 'पुरुषको श्रावकधर्म ग्रहण करानेसे, बिना त्याग किया हुआ जो सावध अंश (पाप सहित कार्य ) रहता है जिसे वह करेगा, उसके अनुमोदनका दोष गुरुकों नहीं होगा? कहते हैं—
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भगवचनप्रामाण्यादुपस्थितदाने दोषाभाव इति ||१२|| (१४५)
मूलार्थ - भगवानके वचनके प्रमाणसे श्रावकधर्म ग्रहण करनेमें तत्पर पुरुषको उसका दान करनेमें दोष नहीं है ॥ १२ ॥
" "विवेचन-' उपासक दशांग' आदिमें भगवानने स्वयं आनंद आदि श्रावant अणुव्रतादि श्रावकधर्म ग्रहण कराया है ऐसा पाठ है। भगवानको 'उसमें अनुमति दोष नहीं है। भगवानका आचरण सर्वांग सुंदर है, अतः वह एकांत दोष रहित है ।
अनादि श्रावधर्म ग्रहण करनेको तत्पर पुरुषको भगवानके वचनकी प्रामाणिकतासे अणुव्रतादि श्रावकधर्म ग्रहण कराने में गुरु केवल साक्षी मात्र रहता है। अन्य पापव्यापार न रोकनेसे उसे उसका अनुमति दोष नहीं लगता । व्रतका अभाव अनादि कालसे है, उसमें गुरुकी कोई साक्षी नहीं है। व्रत लेनेवाला उतना ही व्रत लेना चाहता है अतः उसमें गुरु साक्षी देता है पर बाकी अनतमें पहलेसे