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१६८: धर्मबिन्दु
यदि वह श्रावक साधुधर्मके योग्य हो तो उसे श्रावक - धमे देनेसे जिस सावध अंशका वह पञ्चरखाण नहीं करता उससे अनुमोदना दोष होता है। यदि वह यतिधर्म ग्रहण करता तो वह सावद्य आचरण करता ही नहीं । अत: जो भी सावध आचरण वह करे उसमें उसकी अनुमोदना हो जाती है। साथ ही यावज्जीव उस साधुको अपने सर्व पाप रहित यतिधर्मके नियममें मलिनता आती है। अत: उसे. पहेले यतिधर्म कह कर फिर श्रावक व्रत ग्रहण करावे। ऊंचेके योग्यको नीचा स्थान देनेसे अंतराय होता है । 'नीचे के योग्यको ऊंचा स्थान देनेसे वह उभयभ्रष्ट होता है। अतः सबको उसके योग्य धर्म ग्रहण कराना चाहिये। .
अन्यथा जो दोष है वह कहते हैंअकथन उभयाफल आज्ञाभङ्ग इति ॥११॥ (१४४) - मूलार्थ-(ऐसे) न कहनेसे दोनों धर्मके फल रहित होनेसे आज्ञाभंग होता है ॥११॥ ___ 'विवेचन-आज्ञाभङ्गः भगवानके शासनके 'खत्म होने रूप दुःखद अंत । ____यदि उत्तम चारित्रधर्मके पालनमें असमर्थ पुरुषको श्रावकधर्म न कहे तो वह यतिधर्म व श्रावकधर्म दोनोंके फलसे वंचित रहता है। उससे भगवानके शासनकी आज्ञा भंग होती है
"श्रममविचिन्त्यात्मगतं, तस्माच्छ्रेयः सदोपदेष्टव्यम् । आत्मानं च परं च हि, हितोपदेष्टाऽनुगृह्णाति" ॥१०२॥
-('तत्त्वार्थसूत्रटीका'कारिका)