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गृहस्थ विशेष देशना विधि । १६३ विवेचन-इस प्रकार सम्प्रतिपत्ति सहित.धर्मका, विधिवत् ग्रहण करनेसे विमल भाव पैदा होता है। गुरु यदि शिष्यको, अनुग्रह व उपकारपूर्वक धर्मग्रहण करावें तो, गुरुआशिष्से वह, गिष्यको उपकार, करनेवाला व अधिक फल प्रदान करनेवाला होता है। अन्यथा अविधिसे या, अयोग्य, पुरुषको क्रिश हुआ. धर्मका दान, उपर भूमिमें बोये हुए की तरह प्रायः निष्फल होता है। ____ पहले योग्य पुरुषका विशेषतः धर्म ग्रहण करनेको कहा है, जिसने प्रायः श्रावक धर्मका अभ्यास, या पालना ठीक तरहसे किया है। वह यतिधर्मके योग्य होता है, अतः जो विशेष प्रकारका गृहस्थधर्म, है वह ग्रहण करनेकी विधि पहले कहते हैंसति सम्यग्दर्शने न्याय्यमणुव्रतादीनां ग्रहणं
नान्यथेति ॥५॥ (१३८) मूलार्थ-सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होने पर अणुव्रत आदि ग्रहण योग्य होता है अन्यथा नहीं ॥५॥
विवेचन-सति-होते पर, सम्यग्दर्शने-सम्यक्त्व प्राप्त होने पर, न्याय्यम्-योग्य, अणुव्रतादीनाम्-५ अणुनत, ३ गुणवत, ४ शिक्षाबत-इस प्रकार श्रावकके १२ व्रत ।
सम्यगदर्शनकी प्राप्ति होने पर अणुव्रतादिका ग्रहण करना योग्य है, विना समकिन प्राप्तिके ये व्रत निष्फल जाते हैं। जब तत्वको तत्वरूपसे जान ले, तभी उसके योग्य व्यवहारकी इच्छा होती है। तभी उसे श्रावकके १२ व्रत-अगुव्रत, गुणवत, शिक्षा,