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गृहस्थ देशना विधि : १३७ देनेको किये जाय पर आत्माको कोई सतोष नहीं देते। शरीरकी दुखद वस्तुका भी आत्मासे संबंध न हो । हिंसा भी नहीं हो सकती । पर इन सबका अनुभव आत्माको भी होता है अत: . उससे सर्वथा भिन्न नहीं है।
भेद पक्षका निराकरण करके अब अमेद पक्षका निराकरण करते हैंअभिन्न एवामरणं वैकल्यायोगादिति ॥५९॥ (११७)
मृलार्थ-देह व आत्मा सर्वथा अभिन्न हो तो मृत्यु नहीं हो सकती, शरीर वैसा ही रहता है ।।५९॥
विवेचन-अभिन्न एव-देहसे सर्वथा अभिन्न, भिन्न भिन्न प्रकारमें न बदलनेवाला, अमरणम्-मृत्युका अभाव, वैकल्यस्य अयोगात्-अन्तरका न होना ।
यदि यह माना जावे कि आत्मा व शरीर अभिन्न है, सर्वथा एक ही है और आत्मा भिन्न भिन्न रूप नहीं करता तो-"चैतन्यसहित शरीर ही पुरुष या आत्मा है " ऐसे मतको माननेवाले बृहस्पतिके शिष्योंका मत अंगीकार करना पडेगा । उससे तो मृत्युकी संभावना नष्ट हो जाती है । शरीरमें अंतर नहीं आता । जैसा था वैसा ही है तो मृत्यु कैसे ? शरीरमेंसे आत्माके जानेसे मृत्यु होती है। पर इस पक्षको माननेसे शरीर ही आत्मा है तो गया ही क्या ? और शरीर उसी रूपमें पडा है तो जीवन मरणमे क्या मेद है ? देहको प्रारंभ करनेवाले पृथ्वी आदि पंच भूतो से मृत्यु होने पर मी किसी भी वस्तुका भय नहीं होता । टीकाकार इस पक्षकी शंका व