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१५६ : धर्मविन्दु
धर्मकथनका क्या फल है ? कहते हैं -
अबोधेऽपि फलं प्रोक्तं, श्रोतॄणां मुनिसत्तमैः । कथकस्य विधानेन नियमाच्छुद्धचेतसः ॥ ११ ॥
मूलार्थ - उत्तम मुनि कहते हैं कि यदि श्रोताको लाभ न हो तो भी शुद्ध चित्तवाले उपदेशकको विधिवत् उपदेश - क्रियाका निःसंशय फल होता ही है ॥। ११॥
विवेचन - अबोधेऽपि सम्यक्त्वका बोध न होनेपर भी, फलम्क्लिष्ट कर्मका निर्जरारूप फल, श्रोतॄणाम् - श्रोताओंको, मुनिसत्तमैःअरिहंतद्वारा, कथकस्य - धर्मोपदेशक साधु, विधानेन - चाल, मध्यम, या बुद्धियुत श्रोताओकी अपेक्षासे, नियमाद्- अवश्य, शुद्धचेतस:शुद्ध चित्तवाला ।
श्रीअरिहंत भगवान द्वारा कहा हुआ है कि जो शुद्ध हृदयवाला धर्मोपदेशक साधु सबको उपदेश करता है उसे श्रोताओको बोध न होने पर भी कर्म निर्जरारूप फल तो अवश्य मिलता ही है। यदि अन्य प्रकारसे देशनाका फल मिले तो इस बोध करानेका क्या प्रयोजन कहते हैं
नोपकारो जगत्यस्मितादृशो विद्यते कचित् । यादृशी दुःखविच्छेदाद्, देहिनां धर्मदेशना ॥ १२॥
मूलार्थ - प्राणियोंके दुःखका विच्छेद करनेसे धर्मदेशना जो उपकार करती है वैसा जगतमें दूसरा उपकार नहीं ||१२|