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१४८ : धर्मवन्दु
“निर्जरण-लोकविस्तर-धर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ताश्च । चौधेः सुदुर्लभत्वं च, भावना द्वादश विशुद्धाः" ॥२५॥
-अनित्य १, अशरण २, एकत्व ३, अन्यत्व ४, अशुचित्व ५, संसार ६, आश्रव ७, संवर ८, निर्जरा ९, लोकविस्तार १०, धर्मस्वाध्याय ११, बोधिदुर्लभ १२-इस तरह बारह सिद्ध भावनाओंका मनन करना।
इन भावनाओसे रागादिका क्षय होता है, राग-द्वेष तथा मोह नामक मल क्षीण होते हैं। जैसे सम्यक् प्रकारकी चिकित्सासे वातपित्त आदि रोगका अंत आता है तथा प्रचण्ड पवनसे मेघमण्डल तितर-बितर हो जाता है, क्योकि ये बारह भावनाओं इन मलोकी शत्रु या हनन करनेवाली है।
यहां पाठकोकी जानकारी तथा उनको भावनाओके मननमे सहायभूत हो इसलिये इन बार भावनाओंका स्वरूप सक्षेपमें अन्यत्रसे उद्धृत करके देते हैं___ (१) अनित्यभावना-जगत्में सर्व वस्तुओंका पर्याय बदलता रहता है। सभी चीजें नाशवान् है अतः अनित्य है। कुछ वस्तुएं अल्पकालीन, कुछ. जीवन पर्यंत तथा कुछ कल्पांत पदार्थ होते हैं। जैसे पुष्प या पौधा, मनुष्य जीवन, सूर्य या देव । तब भी सभी अनित्य हैं। शरीर भी नाशवान है। केवल आत्मा नित्य है। लक्ष्मी भी चंचल है। मृत्यु मानवको नष्ट कर देती है। मनुष्यके अभिमानकी सब चीजे, जैसे तन, धत, यौवन आदि सभी नाशवान हैं।